कोलकाता. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मतुआ समुदाय का जिक्र कर बंगाल के चुनावी माहौल को और भी दिलचस्प बना दिया है. उन्होंने बंगाल के नदिया जिले के रणाघाट क्षेत्र में रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक स्थान पर जनसभा को संबोधित किया, जहां मतुआ समुदाय का प्रभाव है. मतुआ समुदाय के लोग बांग्लादेश से आए नामसु्द्र हिंदू प्रवासी हैं और हाल ही में एसआईआर ड्राफ्ट वोटर लिस्ट प्रकाशित होने के बाद समुदाय के मताधिकार से वंचित होने का खतरा बढ़ गया है. रैली स्थल मतुआ समुदाय के गढ़ कहे जाने वाले बोंगाव से ज्यादा दूर नहीं था.
पीएम मोदी ने ममता बनर्जी की अगुवाई वाली सरकार पर हमला बोलते हुए कहा, “मैं हर मतुआ और नामसुद्र परिवार को भरोसा दिलाता हूं कि हम हमेशा उनकी सेवा करेंगे. वे पश्चिम बंगाल में TMC की दया पर नहीं हैं. उन्हें CAA की वजह से भारत में सम्मान के साथ रहने का अधिकार है, जिसे हमारी सरकार लाई है. पश्चिम बंगाल में BJP सरकार बनने के बाद हम मतुआ और नामसुद्र समुदायों के लिए और भी बहुत कुछ करेंगे.”
पीएम मोदी ने डिजिटल संबोधन में मतुआ संप्रदाय के धार्मिक नेता और संस्थापक हरिचंद ठाकुर और गुरुचंद ठाकुर का भी जिक्र किया और उनके योगदान को सराहा. प्रधानमंत्री ने रैली में इस क्षेत्र के 15वीं सदी के बंगाली संत को श्रद्धांजलि देते हुए ‘जॉय निताई’ का नारा भी लगाया और एक अन्य संत चैतन्य महाप्रभु के योगदान को भी याद किया. मतुआ समुदाय दोनों की अराधना करता है.
अब सवाल ये उठता है कि आखिर ये मतुआ समुदाय कौन हैं, जिनका पीएम मोदी ने खासतौर पर जिक्र किया. तो चलिए जानते हैं…
200 साल से ज्यादा पुराना है मतुआ समुदाय का इतिहास
मतुआ समुदाय का इतिहास दो सौ साल से भी अधिक पुराना है. इसकी स्थापना हरिचंद ठाकुर ने की थी. तभी से यह समुदाय राजनीति के साथ गहराई से जुड़ा रहा है. आज़ादी के बाद प्रमथ रंजन ठाकुर हों, उनके निधन के बाद उनकी पत्नी बीणापाणि देवी, या फिर आज उनके बेटे और पोते – यह परिवार और समुदाय के चेहरे हमेशा बंगाल की राजनीति में अहम भूमिका निभाते रहे हैं.
बंगाल विधानसभा चुनाव में मतुआ की अहमियत
चुनाव आते ही पश्चिम बंगाल में, अन्य राज्यों की तरह, जाति आधारित राजनीति तेज़ हो जाती है. इस सियासी समीकरण में सबसे अहम भूमिका अनुसूचित जाति के मतुआ समुदाय की मानी जाती है. राज्य में इस समुदाय की आबादी तीन करोड़ से अधिक बताई जाती है और लगभग 70 विधानसभा सीटों पर इसका सीधा प्रभाव माना जाता है. ये सीटें नॉर्थ 24 परगना, साउथ 24 परगना, नादिया, मालदा और आसपास के इलाकों में फैली हुई हैं.
अगर वोट बैंक के गणित को संसदीय स्तर पर देखें तो बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इनमें से पांच सीटें जीती थीं, जो कि 2019 के मुकाबले एक सीट ज्यादा है. इसके पीछे सबसे बड़ा मुद्दा नागरिकता संशोधन कानून (CAA) था, जिसे मतुआ समुदाय के हितों से जोड़कर पेश किया गया. दरअसल, यही वह समुदाय है, जिसके नाम पर इस कानून को लाने की सबसे ज़्यादा चर्चा हुई.
मतुआ को लेकर बीजेपी की रणनीति
मतुआ समुदाय, जो बंगाल में नामसुद्र समुदाय का हिस्सा रहा है, आज भी कई जगह ‘चांडाल’ जैसे पुराने और अपमानजनक शब्दों से पुकारा जाता है 19वीं सदी में इसके सामाजिक उत्थान की मुहिम शुरू हुई थी, जिसके चलते आज़ादी के बाद इसकी स्थिति में काफ़ी सुधार आया. विभाजन के बाद का जातीय गणित ऐसा रहा कि इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद मतुआ समुदाय को बंगाल में शरणार्थी के रूप में देखा गया. बताया जाता है कि इस समुदाय की लगभग 99.96 प्रतिशत आबादी हिंदू है. इसी धार्मिक और जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने बंगाल में मतुआ समुदाय को अपना आधार बनाने की रणनीति तैयार की.
लंबे समय तक ‘रिफ्यूजी’ कहे जाने से परेशान इस समुदाय की सबसे बड़ी मांग नागरिकता की रही है. भाजपा ने नागरिकता संशोधन कानून लाकर मतुआ समुदाय के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की, जिसे वोट बैंक की राजनीति के लिहाज़ से एक बड़ा कदम माना गया. इसे भाजपा की ‘भूल सुधार’ रणनीति भी कहा गया क्योंकि एनआरसी ने बंगाल के शरणार्थी समुदायों में डर पैदा कर दिया था, जिसे CAA के ज़रिये कम करने का प्रयास किया गया.
ममता बनर्जी की राजनीति क्या कहती है?
एक तरफ भाजपा ने CAA के जरिए मतुआ समुदाय को साधने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने असम में लागू एनआरसी के खतरे को सामने रखकर इस तरह की कवायदों को समुदाय के लिए नुकसानदेह बताया. चुनावी भाषणों में उन्होंने इसे बड़ा मुद्दा बनाया. सिर्फ बयानबाज़ी ही नहीं, ममता बनर्जी ने ज़मीनी स्तर पर भी कदम उठाए. उनकी सरकार ने अनुसूचित जाति और मतुआ जैसे शरणार्थी समुदायों के लिए भूमि अधिकारों की बात की.
ममता सरकार ने इन्हें ‘प्राकृतिक नागरिक’ बताते हुए राज्य में सवा लाख से अधिक भूमि पट्टे देने जैसे फैसले लिए. इसके अलावा, ममता बनर्जी के संबंध मतुआ समुदाय की आध्यात्मिक प्रमुख बोरो मां के साथ काफी पुराने और गहरे माने जाते हैं. बोरो मां ने ममता को मतुआ महासंघ का प्रमुख संरक्षक भी घोषित किया था, जिससे इस समुदाय में उनकी सियासी स्वीकार्यता और मजबूत हुई.

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